Friday, November 1, 2019

लडाख डायरी


ईशान्य वार्ता मासिकाच्या दिवाळी अंकात प्रसिद्ध झालेला लेख.  

सप्टेंबर २०१९
पहाटे चार वाजता गो एअरच्या विमानाने मुंबई सोडली आणि अडीज तासांनी लडाखची धरती सोनेरी सुर्यकिरणात माखून निघालेली दिसायला लागली. लडाखचं विहंगम दृष्य पाहून नवख्याला तो रुक्ष प्रदेश वाटेल, पण मला त्याचे अंतरंग चांगलेच परिचयाचे होते. या सप्टेंबरमध्ये १९व्या वेळी जातानाही मला त्याचं तेव्हढंच आकर्षण होतं जेवढं आत्माराम परब यांच्या सोबत दिलेल्या पहिल्या लडाख भेटीच्या वेळी होतं. मात्र कलम ३७० हटवल्यानंतर ची ही माझी पहिली भेट. या वेळी नेहमीप्रमाणे श्रीनगरला न जाता मुंबईहून थेट लेह गाठलं. हवेत चांगलाच गारठा होता. लडाखच्या हिवाळ्याला नुकतीच सुरूवात झाली होती. विमानतळाबाहेर नुरबू हा तरुण लडाखी मित्र स्वागताला हजर होता. विमानतळावर नेहमीचा उत्साह आणि आपुलकीचा भाव जाणवत होता. नुरबू बरोबर लेह गाठलं. हॉटेल मुन्शी कॉन्टीनेंटलचे व्यवस्थापक राजन शर्मा हसत मुखाने सामोरे आले. कुठेही कलम ३७० हटवल्याचा तणाव किंवा कुठलाच वेगळेपणा जाणवत नव्हता. लेह आपल्याच नादात मस्त होतं.

थोडी विश्रांती झाल्यावर स्वागत कक्षात राजनजींशी गप्पा रंगल्या असतानाच तिथे बसलेल्या एका इसमाकडे लक्ष गेलं. थोड्याच वेळात “कैसे हो?” विचारत त्याच्याशी गप्पांना सुरवात झाली. हा माणूस भारतीय भौगोलिक सर्वेक्षण विभागाच्या अधिकार्‍यांना न्यायला आलेल्या टॅक्सीचा चालक होता. तो कधीही निघून जाईल म्हणून मी लगेच विषयाला हात घातला, अर्थातच मला लडाखला केंद्रशाशित प्रदेश बनवलं गेलं त्याबद्दल त्याचं मत विचारायचं होतं.
मी:   युटी (Union Territory) अच्छा है?
तो:    हा! अच्छाही है हमारे लिए।
मी:   क्यु ?
तो:    अब हमे श्रीनगर नही जाना पडेगा. इधरही अच्छा स्कुल खुलेगा।
मी:   कितने बच्चे है आपके?                     
तो:    छे।
मी:   किधर रहते हो?
तो:    इधर ही, लेह।
मी:   गाव किधर है आपका?
तो:    तुरतुक।
मी:   नाम क्या है?
तो:    हसन
मी:   सब इधर पढते है?
हसन: नही, दो गावमे है
मी:   उधर स्कुल है?
हसन: हा... है, सेना चलाती है।
मी:   कितना खर्चा आता है,
हसन: जादा कुछ नही, सब सेना उठाती है।
मी:   सरहद के उसपार आना जाना होता है?
हसन: नही, वहा हमारे रिश्तेदार है, कभी मिलना है तो बाघा बॉर्डर से आते है।
मी:   हम उसे अटारी बॉर्डर कहते है।
हसन: वही, उधरसे आते है, बडी तकलिफ़ मे है, बहोत महंगाई है उधर, कुछ नही मिलता.
मी:   आपका एमपी कौन है?
हसन: जेटीएन (जामयांग त्सेरींग नामग्याल)
मी:   उधरभी वही?
हसन: हा पुरे लडाख मे एकही खासदार है।      
मी:   वह कुछ करेगा आपके लिये?
हसन: हा करेगा ना!

हसन नाव सांगितलं नसतं तर तो थेट लडाखी बौद्ध दिसत होता. पहिल्याच दिवशी जमिनी हकिकत समजत होती.
                  
१७ सप्टेंबर २०१९
सकाळी लवकर उठून कारगिलला जायला निघालो. वाटेत पथ्थरसाहेब गुरूव्दाराला थांबलो. भारतिय जवानांकडून चालवल्या गेलेल्या या शिखांच्या पवित्र गुरुव्दारात प्रसाद तर मिळालाच पण तिथल्या जवानांकडून नास्ता घेण्यासाठीही आग्रह होत होता. परंतू तिथे न थांबता पुढे निघालो. आता थेट द्रासचं कारगिल युद्ध स्मारक गाठायचं होतं. मॅग्नेटीक हिल, सिंधू-झंस्कार संगम, मुनलॅंड, लामायुरू, फोटू-ला, नमकि-ला, मुलबेक करत कारगिलला पोहोचलो. कारगिल बाजारपेठेत थोडा ट्राफीक जाम होता. सगळी बाजारपेठ गजबजलेली होती. ती मागे सारत द्रासा गावातलं कारगिल युद्ध स्मारक गाठलं. स्मारकापुढे नतमस्तक होऊन पुन्हा कारगिलला हॉटेलमध्ये आलो. सगळी आवराआवर झाल्यावर हॉटेल मालक सादीकभाईंची (यांनी कारगिल युद्धाच्या वेळी भारतीय नागरीकांना, पत्रकारांना, सरकारी अधिकार्‍यांना आपल्या हॉटेल्मध्ये आसरा दिला होता.) भेट घेतली. सलाम-दुवा झाल्यानंतर रात्री निवांतपणे बोलायला सुरूवात केली.      

मी:         युटी (Union Territory) अच्छा है?
सादीकभाई:   अभी तो सब असमंजस मे है।
मी:         क्यो?
सादीकभाई:   आगे क्या होता है देखते है!   
मी:         क्यो? कुछ होने वाला है?
सादीकभाई:   नही... वैसी बात नही है। अभी सब शांती तो है, लेकिन श्रीनगर मे सब पाबंदी हटने के बाद मालूम पडेगा। कुछ लोग जो अपने नेता की बात मानते है वह हालात बिघाडनेकी कोशीश करेंगे। ३७० हटनेके बाद हॉटेल खाली पडा है। धंदा चौपट हुवा है। अब देखते है आगे क्या होगा। १९९० मे श्रीनगर मे मिलिटंसी शुरू हो गयी। लगातार पंद्रह साल हालात बिघडते चले गये। यहा कोई नही आता था। फीर २००४ से कुछ सुधार होने लगा। १५ साल मिलिटंसीने खाये, उसके आगे यह एक साल कुछ नही है। लेकीन वादे पुरे होने चाहीये। लोग बेचैन है।
मी:         बाकी हॉटेलवाले क्या कह रहे है?
सादीकभाई:   सब देखना चाहते है, आगे क्या होगा?
मी:         आपको भरोसा क्यो नही है की सब अच्छा होगा? 
सादीकभाई:   क्युकी ७० साल मे कुछ नही हुवा, अब मोदिजी कह रहे है... होगा। सब देखना चाहते है। होगा तभी मान जायंगे। बोलने से क्या होता है? जमिनी हालात सुधरने चाहिये। अब श्रीनगरसे यहा कोई नही आता है। मतलब सैलानी नही आते है।
मी:         हम लोग भी श्रीनगरसे आनेवाले थे, लेकीन डायरेक्ट लेह आये और अब यहा कारगिल पधारे है।     
सादीकभाई:   इंशाअल्ला सब ठिक होगा।
मी:         होना चाहिये। हॉटेल ओनर्स असोसियशन क्या कर रहा है? कुछ रिप्रेझेंटेशन दिया की नही?      
सादीकभाई:   देंगे तो भी किसको देंगे?
मी:         अभी ले. गव्हर्नर आजायेंगे उनको देना।
सादीकभाई:   अब सब अगले सिझन के इंतजार मे है।  
   
१८ सप्टेंबर २०१९
कारगिलहून निघालो, वाटेत खालसरला थोडं थांबलो, अक्रोड घेतले आणि पुन्हा लेह गाठलं. सगळीकडे सामान्य व्यवहार सुरू होते. कसलाही तणाव नव्हता.

१९ सप्टेंबर २०१९
आज सिंधू व्हालीत फिरायचं होतं. थिकसे मॉनेस्ट्रीला गेलो, तिथे बौद्ध धर्मगुरू दलायी लामा यायचे होतो म्हणून लगबग चालली होती. मनाली-लेह मार्गावर नेहमी प्रमाणे वाहतूल सुरू होती. लेह बाजार, हॉल-ऑफ-फेमला पर्यटक नेहमी सारखेच गर्दी करून होते.

२० सप्टेंबर २०१९
नुब्रा व्हालीत प्रवेश करायच्याआधी खारडुंग-ला हा जगातला सर्वोच्य मोटरेबल रोडवरचा पास  सामोरा येतो. तिथे पर्यटकांची गर्दी होती. नुब्रा व्हालीत स्थिती सामान्य होती.

२१ सप्टेंबर २०१९

ब्रॉड बॅन्डची लाईन टाकण्याचं काम 



काही पर्यटक मित्र नुब्रा मधून तुरतूकला जायला निघाले. आम्ही शेयॉक मार्गे पॅगॉन्ग लेक कडे निघालो. वाटेत ब्रॉड बॅन्डची लाईन टाकण्याचं काम जोरात सुरू होतं. विकासाची पावलं दिसत होती. भारत-तिबेट सिमेवर खडा पहारा देणारे आयटीबीपीचे जवान सिमेकडे निघाले होते. वाटेत लागणरी टांगसे, शक्ती, कारू ही गावं आणि तिथले लडाखी नेहमीप्रमाणे आपापल्या कामात मग्न होते.
                      
२२ सप्टेंबर २०१९
आज लेह जवळच्या साबू गावात फेरफटका मारला. इथे निवृत्त शिक्षक श्री. त्सेरींग नुरबू यांची भेट घेतली. गेली कित्येक वर्ष आपलं निवृत्त जीवन शांतपणे जगणार्‍या या जाणत्या लडाखी माणसाला बोलतं करण्यासाठी तोच प्रश्न विचारला:   
               
मी:         युटी (Union Territory) अच्छा है?
त्सेरींग नुरबू:  हा बहोत अच्छा है?
मी:         क्यो ?
त्सेरींग नुरबू:  यह हमारी पहलेसेही डिमांड रही है। हमारी भाषा, संकृती, परंपरा, त्योहार, शादी, चाल-चलन आदी सब के सब श्रीनगर व्हाली से अलग है। भारत देश को  आजादी मिलनेके पहले से हम अलग ही थे। हमे किसीने पुछा तक नही की हमे किधर जाना है? हमे व्हाली से जबरन जोड दिया गया। सत्तर साल बित गये हमे न्याय की तलाश थी। अब हमे न्याय मिलेगा। हम खुद हमारा सरकार चलायेंगे। किसीके सामने हाथ फैलानेकी जरूरत नही है। अबा हमारे साथ जाजती नही होगी। भेदभाव नही होगा।               
मी:         क्या जाजती होती थी? कैसा भेदभाव?
त्सेरींग नुरबू: एकही PRC की बात देखो।   
मी:         PRC ख्या है?
शिक्षक श्री. त्सेरींग नुरबू


त्सेरींग नुरबू: परमनंट रेसिडेंट सर्टीफिकेट मतलब PRC, यह नही होगा तो सरकारी नौकरी नही मिल सकती। हमे पिआरसी पाने के लिये बहुतही लडना पडता था। चार पिढीयोंका नाम सरकारी जमिन-खाता मे होगा तोही किसीभी लडाखी को पिआरसी मिलता था वर्ना नही। मा का नाम होने से भी नही मिलता था। कोई घर जमायी किया और वह हिमाचल प्रदेश या तिबेट से होगा तो उसे पिआरसी नही मिलता था। इससे बहोतही दिक्कत होती थी। वही दुसरी ओर पिओके से कोई भी आया और उसने व्हालीवाली लडकीसे शादी की तो उसे तुरंत  पिआरसी मिलता था। यह सरासर अन्याय ही है। अब वह दूर हो गया है।                 
मी:         अब विकास होगा? आप यह मनते है?
त्सेरींग नुरबू: होगा... जरूर होगा। उन्होने... मोदीजीने जो कहा वह किया है। हमे उनपर भरोसा है। उन्होने युटी की बात की थी, वह दे दिया। इतना आसान नही था वह। फिर भी हुवा, युटी होनेसे सब लोग बहोत खुश है। अब विकास होगा। वह भी दिन थे जब मै किसी कारण या काम से श्रीनगर जाता था। वहा पक्की सडक देखता था, ब्रिज देखता था तो मन ही मन मे बहोत दुख होता था। हमारे गाव मे यह क्यो नही है?  यहा, लडाख मे ना पक्की सडक थी, ना ब्रिज। हम लोग पॉपलर के पेड, खंबे डालकर ही काम चलाते थे। कच्ची सडक थी। सब पैसा व्हालीवाले खा जाते थे।
           
            श्रीनगरमे जाते थे तो वहा हमारे साथ दुय्यम व्यवहार होता था। बस मे से उतरने के बाद हमारे पिछे-पिछे दो-तीन कश्मीरी चलने लगते थे। हमे “बोट कनस्पा, बोट कनस्पा” करके पुकारते थे, यह एक गाली है। आखो मी आसू आते थे। कुछ बोला तो मारपीट पर उतर आते थे। सब सहना पडता था। अब हम सही मायने मे आझाद हो गये है। हमे युटी मिल गया है।             

असेंब्लीमे हमे सिर्फ २% प्रतिनिधीत्व था। हमे कौन पुछता था? कोई नही। बहोतही बुरी हालत थी हमारी।

            हमे, हमारे बच्चोंको स्कुल मे जबरन उर्दू सिखना पडता था। हमारा क्या ताल्लूख था उर्दू से? हम पर वह थोपी गयी थी। फिर यहा प्रायवेट स्कुल खोले गये, जिसमे उर्दू से छुटकारा मिल गया। हमारे बच्चे वहा सिखने लगे।
मी:         यह सब ठिक है, पर विकास कैसे होगा?  
त्सेरींग नुरबू: क्यु नही होगा? अब दिल्ली से यहा डायरेक्ट पैसा आयेगा। विकास होगा। अब लुटपाट नही होगी। हमारी सरकार होगी, ले.गव्हर्नर होगा। दादरा नगर-हवेली, पॉन्डेचरी मे विकास हुवा है। यहा भी होगा। सरकार अब ध्यान दे रही है। दिल्ली मे नयी सरकार बनतेही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह यहा पधारे थे। प्रधान मंत्री मोदी खुद चार बार यहा आये है। उन्होने जो कहा वह किया। अब हमारा हक कोई नही छिन सकता।             

त्सेरींग नुरबू भारावलेले होते. किती सहन केलं त्यांनी. १९६३ साली पॅगॉन्ग लेक जवळच्या शाळेत त्याची बदली झाली होती. लेहहून चालत निघाले की तीन दिवसांनी ते पॅगॉन्गला पोचायचे. मधे भिषण अशा चांगला पासचा त्याना सामना करावा लागत होता. आज त्यांची सुन तिकडच्या शाळेत आहे. कालच आम्ही पॅगॉन्गला जाऊन आलो होतो. रस्ता रुंदी करणाचं काम जोरात सुरू होतं. विकास लडाखच्या दारात, दर्‍या खोर्‍यात पोचला आहे.

२३ सप्टेंबर २०१९
दुपारचा साडे अकरा बाराचा सुमार होता. शांती स्तूपाच्या पायथ्याशी असलेल्या द पॅलेसमध्ये थोड काम होतं. त्या हॉटेलच्या दारात भारतीय जनता पार्टीचा झेंडा लावलेली मोटार उभी दिसली. हळू हळू आणखी वहानं आली. त्या मोटारीच्या चालकाला बोलतं केलं.            
     
मी:   आपका नाम क्या है?            
तो:    डोरजे.      
मी:   डोरजे यहा कैसी रॅली है?
डोरजे: हम पंचायत चुनाव जित गये है।
मी:   तो क्या हुवा, इतना जल्लोश क्यु है?           
डोरजे: युटी मिला गया है? 
मी:   युटी (Union Territory) अच्छा है? 
डोरजे: हा अच्छा है। 
मी:  उससे क्या होगा?
डोरजे: दिल्ली से यहा डायरेक्ट पैसा आयेगा।
मी:   उस पैसेसे क्या होगा?  
डोरजे: स्कुल बनेगा, कॉलेज बनेगा, अस्पताल बनेगा। 
मी:   कौन बनायेगा?
डोरजे: मोदीजी, अमित शहाजी  
मी:   यहा कोई नही है?
डोरजे: है ना, हमारा जेटीएन  (जामयांग त्सेरींग नामग्याल) है।    

थोड्याच वेळात लेहच्या मॉल रोडवर लडाखचे खाजदार जामयांग नामग्याल मिरवणूकीने येताना दिसले. एक छोटीशी सभा झाली. भारत माता की जय चा जय जयकार झाला. वातावरणात कमालीचा उत्साह होता. 

२४ सप्टेंबर २०१९
लेह विमनतळावरून विमानाने श्रीनगरकडे झेप घेतली. श्रीनगरच्या विमानतळावर उतरताना खिडकीच्या झडपा बंद करण्याच्या सुचना दिल्या गेल्या. विमानात अंधार पसरला. बाहेर उजेड असताना आत मात्र अंधार होता. हा केलेला अंधार होता. श्रीनगरमध्ये कित्येक वर्षं कोंबडा झाकलेला आहे त्याची जणू ही प्रतिकात्मक बाजू होती. लडाखने प्रकाशाकडे झेप घेतली असताना श्रीनगर मात्र चाचपडत आहे. घरी आलो तेव्हा टिव्हीवर बातमी होती श्रीनगर खोर्‍यातल्या सफरचंदाच्या बागेतून सरकारने थेट खरेदी चालवली असून तीन दिवसात बॅंक खात्यात पैसे जमा होत आहेत. आता तरी त्यांच्या डोक्यात प्रकाश पडूदे. उजाडूदे. लक्ख प्रकाश पडूदे.   

नरेंद्र प्रभू
मुंबई ९९८७००३६९०             
  
 

Wednesday, March 6, 2019

आपण यांच्यावर बहिष्कार कधी टाकणार?





पुलवामा येथे झालेल्या भ्याड आत्मघाती दहशतवादी हल्ल्यामुळे संपूर्ण देशात संतापाची लाट असताना एनडीटीव्ही(NDTV) च्या एका महिला पत्रकाराने सोशल मीडियावर वादग्रस्त पोस्ट केली आहे. या महिला पत्रकाराने व्यक्तिगत फेसबुक अकाऊंटवरून शहीद जवानांची खिल्ली उडवणारी संतापजनक पोस्ट केल्याचं समोर आलं आहे. हा प्रकार समोर येताच एनडीटीव्हीने याची दखल घेत संबंधित महिला पत्रकाराला फक्त दोन आठवड्यांसाठी निलंबत केलं आहे.

पुलवामा येथील दहशतवादी हल्ल्यानंतर सर्वत्र या हल्ल्याचा निषेध होत असाताना एनडीटीव्हीच्या वरिष्ठ महिला संपादक निधी सेठी हिने आपल्या व्यक्तिगत फेसबुक अकाऊंटवरून शहीद जवानांची खिल्ली उडवली. ’56 इंचाच्या तुलनेत 44 भारी पडले अशा आशयाचं ट्विट करत सेठी हिने #HowsTheJaish असा हॅशटॅगही वापरला. दहशतवाद्यांना पाठिंबा दर्शविणारा हॅशटॅग म्हणून #HowsTheJaish या हॅशटॅगकडे पाहिलं जातं.

तीची पोस्ट काही वेळातच व्हायरल झाली आणि सोशल मीडिया युजर्सनी तिला चांगलंच धारेवर धरलं. नेटकऱ्यांनी निधी सेठी हिला तीच्या वादग्रस्त पोस्टचा जाब विचारत चांगलेच झापले. मोठ्या प्रमाणात निधी सेठी हिला ट्रोल करण्यात आलं. हा प्रकार लक्षात आल्यानंतर एनडीटीव्हीने कारवाई करत निधी सेठी हिला दोन आठवड्यांसाठी निलंबित केलं.

भारतत राहून, या देशाचं खाऊन, इथल्या पैश्यावर मौजमजा मारून असा देशविघातक विषारी विचार यांच्या नसानसात भरला आहे त्या नालायक पत्रकारांचा आणि त्याना पाठीशी घालणार्‍या NDTV सारख्या प्रसारमाध्यमांचा जाहीर निषेध झाला पाहिजे आणि समस्त भारतीयांनी त्यांच्यावर निदान बहिष्कार तरी घातला पाहिजे.

श्रद्धांजलीसाठी एकजुट नको, टुकडे टुकडे गर्जणार्‍यांच्या व त्याच्या समर्थकांच्या विरोधात एकजुट होता आले तर बघा.


ही घटना राजकीय लाभासाठी वापरणार नाही असे कॉग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी यांनी स्वच्छ सांगून टाकलेले होते. पण त्यांच्याच पक्षाचे पंजाबातील एक मंत्री नवज्योत सिद्धू यांनी तात्काळ प्रतिक्रीया देताना निषेध वा बदल्याची बाब बाजूला ठेवून पाकिस्तानशी संवाद करूनच संघर्ष रोखता येईल, अशी मुक्ताफ़ळे उधळलेली आहेत. दुसरीकडे राहुलच्याच सोशल मीडिया विभागाच्या प्रमुख दिव्य स्पंदना यांनी अगत्याने त्याच राष्ट्रीय भावनांना पायदळी तुडवित प्रशांत भूषण यांच्या सिद्धूसारख्याच प्रतिक्रीया सोशल मीडियाच्या कॉग्रेस खात्यावर पुनर्मुद्रीत केल्या होत्या. हा कश्मिरी तरूणाने केलेला हल्ला आहे आणि काश्मिरातील तरूण अशाप्रकारे दहशतवादाकडे वळत असल्याला भारत सरकारचे धोरण व तिथली लष्करी कारवाईच जबाबदार असल्याचा दावा प्रशांत भूषण यांनी केलेला आहे. त्यांनी काश्मिर पाकिस्तानला देऊन टाकावे, असी सुचना यापुर्वी अनेकदा मांडलेली आहे आणि अशा जिहादी दहशतवादी घातपातानंतर त्यातल्या संशयितांना वाचवण्यासाठी भूषण यांच्यासारखे वकील नेहमीच पुढे आलेले आहेत. अशाचप्रकारे भारतीय संसद भवनावरच्या हल्ल्यात अफ़जल गुरू दोषी ठरलेला असताना त्याच्याही समर्थनाला भूषण व तत्सम अनेकजण समोर आलेले आहेत. पण त्याच्याही पुढे जाऊन त्याच्या फ़ाशीचा निषेध करणार्‍या सोहळ्यात या लोकांनी वारंवार सहभाग घेतलेला आहे. अशा एका सोहळ्याचे आयोजन नेहरू विद्यापीठात झाले, तेव्हा अफ़जल गुरूचे समर्थन व भारताचे तुकडे करण्याच्या डरकाळ्या फ़ोडल्या गेल्यावर काहूर माजले. तर घोषणा देणार्‍यांच्या समर्थनाला राहुल गांधींसह केजरीवालही जाऊन पोहोचले होते.

आपल्या जागी आपले काम वा कर्तव्यही ज्यांना धड बजावता येत नाही, हे लोक आज शिरजोर झालेत. ही आपल्याला घातपातापेक्षाही अधिक भेडसावणारी समस्या झालेली आहे. गुप्तचर खाते झोपलेले होते काय? असलेही सवाल सरकारला हे विचारत असतात. बंगालमध्ये सीबीआयला आपली कारवाई करण्यापासून रोखण्यासाठी अधिकार्‍यांना अटक करण्यापर्यंत मजल मारणार्‍या ममता आता त्याच थाटात गुप्तचर व सुरक्षा सल्लागार काय करीत होते; असा सवाल करीत आहेत. मात्र आपल्या हाती जो अधिकार वा स्वातंत्र्य आलेले आहे, त्याचा जबाबदारीने वापर करण्याचे सौजन्यही त्यांच्यापाशी कधी आढळून येत नाही. आपल्या कर्तव्यात लहानसहान बाबतीत कसुर करणारेच; सरकार, गुप्तचर, सुरक्षा दलांना नित्यनेमाने सवाल विचारू लागतात, तेव्हा आधीच जीव धोक्यात घालून राखण करणार्‍यांचे लक्ष किती विचलीत होत असेल? त्यांचे विचलीत लक्ष वा गोंधळलेपणा पाकिस्तानच्या दहशतवादी संस्था संघटनांसाठी सर्वात मोठी मदत असते. चकमकीत गुंतलेल्या लष्कराच्या जवानांना मागून धोंडे मारून विचलीत करणारे हुर्रीयतचे भाडोत्री निदर्शक आणि उठल्यासुटल्या सुरक्षा यंत्रणांवर प्रश्नांचा भडीमार करणार्‍यांमध्ये नेमका कोणता गुणात्मक फ़रक असतो? (ही सुरक्षा दळांवर केलेली वैचारीक दगडफेक नव्हे का?)  पाकिस्तान कुणा कश्मिरी वा भारतीय बहकल्या मुस्लिम तरूणाला केवळ घातपाताचे प्रशिक्षण व हत्यारे पुरवित असते. पण त्यांनी तशी हिंसा वा घातपात घडवण्यासाठी पोषक गोंधळाची परिस्थिती पाकिस्तान निर्माण करू शकत नाही. तशी स्थिती इथेच कोणी तरी निर्माण करावी लागते, जिचा लाभ असे दहशतवादी उठवू शकत असतात. असे गद्दार आपल्यातच उजळमाथ्याने वावरत नाहीत काय?

अशा सिद्धू वा प्रशांत भूषणवर आता टिकेची झोड उठलेली आहे. पण ४० जवानांचा मारेकर्‍यांना अशी परिस्थिती निर्माण करून देणार्‍यांना प्रतिष्ठेने आपण वागवत आहोत, त्याचे काय? दहशतवादी कुठून पैदा होत असतो? तो आईच्या उदरातून थेट जिहादी म्हणून जन्म घेत नसतो. तर आसपासच्या वातावरणातून त्याची जडणघडण होत असते. कश्मिरात हजारो मुस्लिम तरूण आहेत. त्या प्रत्येकाने हाती बंदुक घेतलेली नाही की स्फ़ोटकांचे प्रशिक्षण घेण्यासाठी पकिस्तानला प्रयाण केलेले नाही. जे मुठभर त्या दिशेला वळतात, त्यांना तिकडे ढकलण्याचे काम फ़क्त हुर्रीयतवाले करीत नाहीत. तर त्यांच्या अशा उचापतींना राजकीय सामाजिक प्रतिष्ठा व मुभा देण्याचे पाप करणारे जथ्थे इथेच बोकाळलेले आहेत. त्यातून दहशतवादी उपजत असतात. अरुंधती रॉय, प्रशांत भूषण, केजरीवाल किंवा राहुल गांधी कन्हैय्याकुमार यांच्या समर्थनाला जातात, तेव्हा प्रत्यक्षात संसदेवरील घातपाती हल्ल्याला प्रतिष्ठा मिळवून देत असतात. कोणी अफ़जल गुरूच्या फ़ाशीच्या विरोधात मानवाधिकाराचा गळा काढणारा अग्रलेख लिहीतो, तेव्हा आदिल दार सारख्या हलकटांना अफ़जल गुरू आदर्श वाटत असतो आणि त्याला पाकिस्तानात जाऊन जिहादी फ़िदायीन होण्याचे डोहाळे लागत असतात. थोडक्यात पाकिस्तानला भारताच्या विरोधात हिंसाचार घडवण्यासाठी जी तरूणांची भरती करायची असते, तिला प्रोत्साहन देणारे आपल्यातच दबा धरून बसले आहेत. शरदा पवार, जितेंद्र आव्हाडसारखे कधी नयनताराच्या नावाने आक्रोश करताना दिसतील, तर कधी भारताचे तुकडे पाडण्याच्या डरकाळ्यांना अविष्कार स्वातंत्र्य ठरवण्यासाठी आपली सर्व बुद्धी पणाला लावताना दिसतील. त्यांचा बंदोबस्त सुरक्षा सैनिक, गुप्तचर वा पोलिस सरकार करू शकत नाही. ती जबाबदारी आपण सामान्य नागरिकांची असते. आज टाहो फ़ोडणारे आपण ती कितीशी पार पाडत असतो? आपण काय करू शकतो?  हाच प्रश्न मनात आला ना?

याचा अर्थ इतकाच, की आपल्यातच उजळमाथ्याने वावरणार्‍या अशा गद्दार फ़ितूर लोकांविषयी आपण गंभीर नसू; तर आपण देशाच्या सुरक्षेविषयी उगाच आक्रोश करण्यात काहीही अर्थ नाही. त्यालाही देखावाच म्हणावे लागेल. आपल्याला कोणी काश्मिरात जाऊन हुरयत किंवा दहशतवाद्यांचा बंदोबस्त करायला सांगितलेले नाही. पण त्यांच्यासारख्या जिहादींना भारतीय सेनादलाच्या विरोधात हिंसा माजवायला प्रोत्साहन व हिंमत देणार्‍या कन्हैय्याकुमार  किंवा उममर खालीद यांच्या पाठीशी उभे रहाणार्‍यांचा बंदोबस्त तुम्ही आम्ही नित्य जीवनात करू शकतो ना? त्यासाठी आपल्यालाही हाती बंदुक वा बॉम्ब घेण्य़ाची काही गरज नाही. आपल्या साध्यासरळ वागण्यातून वा कृतीतून अशा प्रवृत्तीचा बंदोबस्त करणे शक्य आहे. अगदी छोट्या छोट्या कृतीतून अशा देशद्रोह्यांचा बंदोबस्त आपण करू शकतो. आज जो उठतो, तो भारत सरकारला वा भारतीय लष्कराला पाकिस्तानला धडा शिकवा, म्हणून घोषणा देत रस्तोरस्ती फ़िरताना दिसतो आहे. पण दुसर्‍याने काय करावे हे सांगताना आपल्याला काय करणे शक्य आहे, त्याचा साधा विचारही आपल्या मनाला शिवलेला नाही. सैनिकांनी वा सरकारने काय करावे याची माहिती आपल्याला पक्की आहे. पण आपल्या जागी आपण खुप काही करू शकतो, कुठलाही कायदा न मोडता खुप काही करू शकतो, त्याचा आपल्याला पुर्णपणे विसर पडला आहे. आपल्याला बंदुक बॉम्ब ही हत्यारे वाटू लागली आहेत. पण आपल्यापाशी असलेले स्वातंत्र्य व अधिकार देखील अधिक भेदक हत्यारे असल्याचे भान सुद्धा आपल्याला राहू शकलेले नाही. म्हणून आपण पटकन म्हणतो. आम्ही सामान्य माणसे काय करू शकतो? मित्रांनो करायचे असेल तर आपण खुप काही करू शकतो.

निराश वैफ़ल्यग्रस्त मुस्लिम तरूण घडवण्याचे काम सिद्धू-भूषण वा कन्हैयाचे समर्थन राहुल-केजरीवाल करीत असतील, तर या पुरोगामी दहशतवाद्यांचा बंदोवस्त कायदा व सरकार करू शकत नाही. हे अस्तनीतले निखारे आत्ता आपणाच झटकून टाकले पाहिजेत. आपण हे नक्की करू शकतो. दिसायला किरकोळ गोष्ट आहे. आपल्याला जमणार आहे का? अशांना बहिष्कृत करणे शक्य नसेल तर उगाच धडा शिकवण्याच्या डरकाळ्या नकोत आणि सरकारला कारवाई करण्याचे सल्लेही द्यायला नकोत. रोजच्या जगण्यात कोंबडी बकरीसारखे जगावे आणि आपला नंबर लागला की निमूट मरावे.

नरेंद्र प्रभू


ईशान्य वार्ता फेब्रुवारी २०१९ अंकातून 

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